अपने अपने दर्द
वो मुझे और मैं उसे अक्सर उस पार्क में दिख जाते थे। कुछ दिन तो अजनबीपन कायम रहा फिर एक दिन उसकी तरफ़ से एक प्यारी सी मुस्कान मेरी तरफ आई, मैंने भी उस मुस्कान के बदले में मुस्कान परोस दी। बस यही था हमारा परिचय।
वो लगभग रोज़ ही मिल जाती,एक बड़ी सी गाड़ी से,अपने लाव लश्कर के साथ उतरती,दो बच्चे,एक बारह तेरह साल की लड़की,और आठ नौ साल का लड़का। एक बुजुर्ग महिला, शायद उसकी सास या मां हो।एक अधेड़ सी महिला जो शायद उनकी नौकरानी थी।
बुजुर्ग महिला को आते ही वो घूमने के लिए बोलती। वो महिला अनमने मन से एकाध चक्कर लगा कर फिर बैठ जाती। फिर दोबारा कहने पर फिर खड़ी हो जाती। लड़की और लड़का जो उस के बच्चे थे,आते झूलों की तरफ लपक पड़ते,वो तुरंत अपनी सहायिका को बच्चों की तरफ दौड़ा देती।
देखना कहीं बाबू गिर ना जाए
और खुद ख़ामोश खोई खोई सी शुन्य में निहारती, तपस्या रत सी उसकी बोझिल पलकें बहुत सुंदर लगती थी।
उस बुर्जुग के वापिस आने से जैसे उसकी तपस्या भंग सी हो जाती थी। पर वो उनको फिर घूमने को कहने की अपनी ड्यूटी निभा फिर वापिस शुन्य में खो जाती।क ई बार तो मुझे लगा कि कहीं ये कोई ध्यान क्रिया तो नहीं है,या फिर इनकी नज़रों के सामने कोई बहुत ही प्यारा फूल खिला हो। पर कुछ भी तो नहीं था वहा।झुकी सी निगाहें,जाने क्या खोजती रहती थी।
मैं उससे पहले ही पार्क पहुंचती थी,और उससे पहले ही वापिस निकल आती थी। घर के काम और नौकरी के झमेलों से मैं हर रविवार पार्क के लिए एक घंटा अवश्य निकालती थी। वो शायद रोज आती होगी,या फिर मेरी ही तरह। बिना जान पहचान बात करना भी तो अच्छा नहीं लगता ना।
मुस्कान के आदान प्रदान से बढ़ा हमारा परिचय कुछ दिनों बस यहीं तक ही सीमित रहा।
मौसम में बदलाव आ रहा था नवंबर आधा बीत चुका था। अब सुबह-शाम ठंड पड़ रही थी, हालांकि दोपहरी तो दोपहर जैसी ही रहती थी। आज मैं पार्क पहुंची तो वो भी पहले से ही बैठी दिखी मुझे।आज उसका लाव लश्कर नहीं था संग ,यानि नौकरानी, गाड़ी ,आज तो बच्चे व माता जी भी नहीं थी।
गुड मार्निंग दीदी,
उसकी खोई सी आँखें,पर होंठों पर वही प्यारी सी मुस्कान,मगर थोड़ी औपचारिक सी।
गुड मार्निंग, आज बच्चे नहीं आऐ?
नहीं दीदी,पर आप क्या रोज़ पार्क नहीं आती?
नहीं भी मैं तो बस संडे को ही आ पाती हूँ, नौ से पाँच ड्युटी बजानी पड़ती है, फिर घर परिवार की ड्यूटी,कहां निकला जाता है रोज़ रोज़।मैं बिना औपचारिक हुए उसके आगे अपनी व्यस्तता का रोना ले बैठी।
आप रोज आती हैं,मैंने मेरी व्यस्तता में उसकी कोई रूचि न देखकर प्रश्न किया।
पंद्रह दिन से रोज आ रही हूं दी, डाक्टर ने बोला है डिप्रेशन है, दोनों समय घूमना जरूरी है।
तो आप तो यहां बैठी हैं चलो राउंड लेकर आते हैं।
दीदी मैं डेढ़ किलोमीटर चलकर ही आती हूं पर यहां आकर मुझसे चला ही नहीं जाता,मन करता है,बैठी रहूं इन पेड़ पौधों को निहारती रहूं अंजान आहटें सुनती रहूं क्या पता कोई आहट मेरे लिए ही हो।
उस की ये उदास बातें वो भी पहली ही गुफ्तगू में मुझे जता गई कि वो डिप्रेशन और उदासी का शिकार है। वज़ह कुछ भी हो। मैंने उसे बड़े प्यार से हाथ का सहारा देते हुए मज़ाक में कहा,
"डियर आहट ही नहीं,हम तो दस्तक हैं अपनेपन की,आपके लिए, चलिए एक राउंड लेते हैं।"
वो भी अनमने मन से उठ खड़ी हुई थी।
पार्क में घूमते हुए ही उसने बताया था,कि वो शहर के जाने माने उधोगपति रामजीलाल जी के बेटे की पत्नी हैं।
दो बच्चे हैं, बेटी हास्टल में है,बेटा घर पर ही है।
चलते वक्त मैंने उसकी और नसीहत का ज़ुमला फैंका था।
अपना ध्यान रखा करो,अभी उम्र ही क्या है,जो डिप्रेशन की मरीजा हो गई हो।
दीदी आप अपना नंबर दे देंगी मुझे?
हां हां क्यों नहीं, मैंने उसे अपना नंबर दिया था,उसने तुरंत काल किया था मेरे नंबर पर।
दीदी प्लीज़ सेव कर लेना,विनती नाम है मेरा।
हम अपने अपने रास्ते निकल आए थे।
लग ही नहीं रहा था कि ये इतने बड़े उद्योगपति की पुत्रवधु है।मेरा नंबर मांगना फिर अपना सेव करने को बोलना।इसकी तो बहुत सहेलियां होंगी,और वो भी बड़ी बड़ी पैसे वाली। मेरे जैसी प्राईवेट फर्म की फटीचर क्लर्क की तरफ़ इसका दोस्ती का हाथ?
अपने सवालों में उलझी घर पहुंची ही थी,कि दरवाजे से ही पतिदेव की फरमाइश कानों में पड़ी।
आज संडे है मोहतरमा,आज तो सारी चीज़ें हमारी पसंद की बना दो, कड़ी, मसाले वाले आलू-मटर।
मैं भी विनती को भूल कर अपने लिए चाय बना कर ,अपनी दिनचर्या में गुम हो गई थी।
कामवाली के साथ घर की झाडपोंछ, धुलाई, खाना,बर्तन, फिर कपड़ों की धुलाई,उन्हें सहेजना, मैं विनती का नंबर ही सेव करना भूल गई थ
भागते हुए सप्ताह के रविवार से मैं सुबह के दो घंटे अपने लिए जरूर चुराती हूं, सुबह थोड़ा जल्दी उठ कर पार्क में घूमने जाती हूं,मेरे घर से पार्क तीन किलोमीटर की दूरी पर है जो मैं पच्चीस मिनिट में तय कर लेती हूँ।पचास मिनिट का आना जाना और आधा घंटा पार्क में बिताना।बस यही मेरा अपना था ,बाकी तो घर दफ्तर और बच्चे,इस भागदौड़ की जिंदगी में शायद ये बहुत बचा पाती थी अपने लिए। वरना मेरी क ई सहकर्मी तो पैदल चलना ही भूल गई थी जैसे। आफिस कैब से घर और फिर वही आफिस।
आज शनिवार है,काम निपटा कर सोने की तैयारी में है थी कि मोबाइल पर मैसेज की आवाज़ हुई
कल आओगी न दीदी पार्क में, इंतजार करूंगी
विनती।
ओह मैं तो इसे भूल ही गई थी।
जी विनती जरूर आऊंगी,मिलते हैं डियर। मैंने फटाफट टाइप कर दिया था।
मैं सुबह सात बजे पार्क पहुंची थी,पर विनती नहीं थी। मैंने पार्क का चक्कर लगा कर इधर-उधर देखा पर विनती कहीं नहीं थी।मैं कुछ परेशान सी हो गई, फिर खुद को ही समझाने लगी।
शायद उठ न पाई हो,आज ठंड भी तो बहुत हैं।
मैं वापस घर आ गई थी। खाने की तैयारी कर सब काम निपटाये ही थे कि बारह बजे विनती का मैसेज आया।
सारी दीदी, नींद की दवा के कारण आँख ही नहीं खुली,और जब मैं पार्क गई तो शायद आप जा चुकी होंगी ।
मैंने भी नींद की दवा ना खाने का नसीहती मैसेज भेज दिया था।अब उसके मैसेज रोज़ आ जाते थे। कभी गुड मार्निंग तो कभी भी गुडनाईट,के उदासी भरे मैसेज। मैं भी उसे जब तब किसी के आते प्रेरणा दायक मैसेज फारवर्ड कर देती। हम रविवार को रोज़ मिलते। दीपावली पर्व पर उसने मिठाई का डिब्बा और एक गिफ्ट पैक पार्क में ही दिया था मुझे।
मैं हैरान और परेशान थी उन लोगों के स्टेट्स को देखते हुए कि क्या दूं क्या ना दूं।
हारकर मैंने घर की बनी गुझिया उसे पार्क में ही दे दी थी। वो भी पैकिंग लेकर अपने घर चली गई थी।
कल सोमवार को दिवाली थी,आज दोपहर में ही उसका मैसेज आया था। दीदी आप का दिया ये तोहफा मेरे लिए बहुत मायने रखता है, विशेष कर आज के दिन।
मैं और वो जितना उसके करीब आ रहे थे वो उतनी ही अनसुलझी पहेली सी लगने लगती।
दिन बीतते गए, विनती और मैं और भी करीब आते गए। विनती की डिप्रेशन कम नहीं हो रही थी।ऐसा मुझे लगता था,उसके हाव भाव शक्ल से। मैं भी उसको ज्यादा वक्त नहीं दे पाती थी एक तो नौ से पांच की नौकरी वो भी प्राईवेट। काफी कुछ देखना पड़ता। हमारी फर्म में मजदूरों ने हड़ताल कर दी, कुछ हिंसक तनाव को देखते हुए प्रबंध समिति ने एक सप्ताह आफिस बंद कर दिया,ये प्रशासन के भी आदेश थे।
मैं मायके जाकर भाई से मिलने का प्रोग्राम बनाते बनाते घर आ रही कि तभी घंटी के साथ मेरे मोबाइल पर विनती का नंबर उभरा।
दीदी आप की छुट्टियां हो गई हैं ना?
हां विनती,पर तुम्हें कैसे मालूम?
टीवी के आगे बैठी हूँ दीदी।
हां छुटियां हुई हैं विनती एक सप्ताह की।
दीदी मैं इन छुट्टियों में मैं रोज़ आपसे मिलने आ सकती हूं
हां हां क्यों नहीं विनती, छोटी बहन हो तुम मेरी,ये भी कोई पूछने की बात है। प्लीज़ जरूर आना।
ओके दी, मैसेज करती हूंआपको।
मैं कहने को तो कह गई कि आना जरूर,पर फिर हकीकत पर नज़र डाली तो मुझे बड़ा मुश्किल लगा। मेरी कभी किसी से दोस्ती नहीं थी। हाँ बाहर मिलने पर दुआ सलाम सब से थी। ना मैं कहीं जाती थी,ना ही किसी को आमंत्रित करती थी।
अपने बूते में रहकर मैं किसी जरूरतमंद की मदद भी कर देती थी।पर बिना किसी तस्वीर में आए।
तभी फ़ोन पर मैसेज की आवाज़ हुई थी।
देखा विनती का ही मैसेज था।
दीदी कल एक घंटे के लिए सिटी रेस्टोरेंट आ सकती हैं क्या?मेरे ख्याल से एक बजे ठीक रहेगा, बाकी आप बता देवें।
हम्म यही ठीक रहेगा, मैंने सोचा और जवाब दे दिया। पति भी इस समय ड्यूटी पर होते हैं,बेटी हास्टल है,और बेटा कालेज होता है। कामवाली बाई तो सुबह ही आ जाती है।
मैंने सारी दिनचर्या सोच ली थी। अपनी सोच को अमलीजामा पहना कर मैं एक बजे ही रेस्टोरेंट पहुंच गई थी। विनती पहले से ही वहां मौजूद थीं।
उसकी प्यारी सी मुस्कराहट के पीछे एक उदासी साफ थी।
मेरे बैठते ही उसने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर शुक्रिया बोला था।
किस चीज का शुक्रिया विनती?
आप ने मेरे बुलाने का मान रखा और आप यहां आई दीदी।
तुमने इतनी मोहब्बत और अपनेपन से बुलाया था विनती तो ना आना तो मुनासिब ही नहीं था मेरे लिए।
दीदी मेरी मोहब्बत मेरे अपनेपन की किसी ने भी कदर नहीं की,वो फफ़क पड़ी थी टेबल पर सिर रखकर।
ये शुक्र था कि हमारी सीट एक अंधेरे कोने में थी ,और मेरी पीठ थी उस तरफ, जिससे विनती पर किसी की निगाह पड़ना मुमकिन नहीं था। मैं भी उसकी हालत देखकर भावुक हो गई थी,पर मैंने तुरंत खुद को संयमित कर लिया था।
विनती क्या हुआ प्लीज़ बताओ मुझे?
दीदी आप सुरेन्द्र को जानती हैं ना?
सुरेन्द्र मेरी आँखें सिकुड़ गई थी, सुरेन्द्र सन्नी मेरा भाई।
हाँ जी दीदी, आपका भाई,जो चचेरा होते हुए भी आपको अपनों से भी ज्यादा अज़ीज़ था।
था क्या विनती, मुझे तो सन्नी आज भी बहुत अज़ीज़ है,पर वक्त मैंने लंबी साँस खींची थी।
पर तुम कैसे जानती हो मेरे भाई सन्नी को,मैं जैसे चोकी सी थी,और ये भी कि मैं उसकी
उन की हालत की जिम्मेदार मैं ही हूँ दीदी,मेरे ही कारण,वो फिर दोबारा फफ़क पड़ी थी।
काफी और स्नेक्स ठंडे हो गए थे। उन्हें किसी ने छुआ भी नहीं था।
मैंने विनती को संभालते हुए वेटर को दोबारा चाय लाने को बोला था। वो चाय की किस्म बता कर आर्डर पूछ रहा था,और मेरा दिल और दिमाग मेरे सन्नी के पास था। क्या था वो क्या हो गया है।
पानी पी लो विनती।
आप को मुझसे नफरत नहीं हुई दीदी कि मैं वही हूँ, जिस के कारण आपके भाई की इतनी बदतर हालत हुई।
नहीं विनती नहीं बेटा, तुम्हारी हालत भी तो सन्नी ही जैसी है।ये सब नसीबों का फेर है।
विनती ने बताया था कि उसकी वर्तमान ससुराल वालों के पैसे के लालच में उसके पिता जी ने ये रिश्ता स्वीकार कर लिया था। शादी के बाद उसने घरवालों से तकिया कलाम ही खत्म कर लिया है। यहां तक कि उस शहर ही नहीं ग ई।
विनती जो हुआ,सो हुआ,पर तुम अपनी गृहस्थी सभांलो अब। दो बच्चे भी हैं तुम्हारे।
मेरी तो गृहस्थी ही नहीं है दीदी,संभालूं किसको।
बेटी मेरी ननद की है, हास्टल में पढ़ती है,बस मुझे मम्मी कहती हैं।मेरी सास और नौकरों-चाकरों ने पाला है उसे भी। रहा बेटा तो मुझे पता नहीं किसका है,हाँ कोख मेरी जरूर थी। मुझे बेहोश कर कर के डाक्टरों ने अपनी नई टेक्नोलॉजी से इसे मेरे कोख में स्थापित कर दिया,और अब ये रामजीलाल जी के इकलौते सुपुत्र का वारिस है।
पर विनती तुम्हारे पति? फिर ये आधुनिक टेक्नोलॉजी की जरूरत? मैं जैसे अंदर तक सिहर उठी थी।
मेरे पति इस काबिल ही नहीं दीदी कि वो किसी स्त्री को संतान सुख दे सकें। इसी वजह से ही तो मुझे बलि का बकरा बनाया गया। पैसे और पहुंच में ये खानदान शुरू से ही बहुत तरक्कीमंद रहा है। हमारे घर के हालात इन से छिपे नहीं थे।
मेरे पिता जी लालच में आ गए और मुझे बलि चढ़ा दिया गया। मेरी तीनों बहनों की शादियों और भाई की पढ़ाई का खर्चा सब इन लोगों ने ही दिया।आज सब अपनी अपनी ज़िंदगी में अच्छे मुकामों पर हैं और मस्त हैं।
विनती तो शायद किसी को याद भी नहीं होगी।
पंद्रह साल हो गए हैं मेरी शादी को, समाज के सामने दो बच्चों की माँ हूँ,पर यकीन करना दीदी मेरे और मेरे पति की शायद ही कभी बात हुई हो। हाँ किसी भी कार्य क्रम में फोटो खिंचवाने के लिए वो मुझे इस तरहं अपने करीब खींच लेता है जैसे मुझ में और उस में बहुत ही मोहब्बत है। उसके परिवार वाले भी लोगों के सामने ऐसा स्नेह दिखायेंगे कि जैसे मैं उनके लिए सब कुछ हूं। पर सब दिखावा।
पर विनती तुम बहू हो उस खानदान की।
वो तो हूं ही दीदी,यही तो श्राप है मेरी ज़िंदगी का।
वो जो महिला पार्क में तुम्हारे साथ आती थी वो कौन हैं?
दादी सास हैं वो मेरी। आजकल तो वो भी बिस्तर पकड़ चुकी हैं।
विनती बेटे को तुमने अपनी कोख से जन्म दिया है,तुम माँ हो उसकी,उस पर ध्यान दो बेटा,वो तुम्हे समझेगा, ज़िंदगी के एक मोड़ पर वही तुम्हारा अपना है,तुम्हारा कौखजाया
ये भी संभव नहीं है दीदी, मुझसे दोनों बच्चों का उतना ही संबंध रखा गया है, जितना जरूरी था।बाकी तो दादी को भी मम्मी बोलते हैं बच्चे और दादू हैं पापा हैं उनके। बेटे को भी अभी महीने भर पहले देहरादून हास्टल भेज दिया है।आप यकीन करेंगी मुझे तो पता ही जब चला,जब बेटा मुझे बाय बोलने आया। औपचारिक सी बाय बाय,और दादी के गले लगकर वो कह रहा था जल्दी आना मम्मी आय विल मिस यू।
उफ्फ, मैं मन ही मन सिसक उठी थी।
रिश्तों में भी लोग राजनीति खेल जाते हैं।
दीदी, सन्नी को फोन करो ना।
फोन, विनती, पता नहीं वो किस गली में नशे में धुत पड़ा होगा,या फिर किसी सरकारी नशामुक्ति केन्द्र में पड़ा होगा।
हाँ मैं कल वल शायद घर जाऊँगी,तो वो जहाँ भी होगा मिल कर जरूर आऊंगी, तुम्हारी बात भी करावाऊंगी।
तभी उसके फ़ोन की घंटी बजी थी।
अभी पहुंच रही हूँ रास्ते में हूं
नौकरानी का फोन था,करही थी मैडम ( मेरी सास) घर पहुंचने वाली है।
विनती तुमने मुझे पहचाना कैसे?
दीदी सुरेन्द्र के फोन में हर राखी पे आपके साथ खिंची फोटो होती थी। शुरू में तो मैं जान ही नहीं पाई थी की आप लोग चचेरे भाई बहन हैं।
मेरी बात जरूर करवाना दीदी उनसे, पता नहीं इस ज़िंदगी में कौनसा लम्हा हमारा आखिरी हो।
ऐसा नहीं बोलते विनती। मैं चुप हो ग ई थी ये भी न कह पाई कि अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी है, तुमने अभी ज़िंदगी में देखा ही क्या है?
जल्दी जाना और जल्दी आना दीदी,उसने खड़े होते हुए कहा था।
मैंने स्नेहिल हाथ उसके सिर पर रख दिया,वो निकल गई थी काउंटर पर बिल देकर। मैं उठ ही नहीं पाई थी सहज रहकर सब सुन लिया पर इसे सहन करना उतना सहज नहीं था।
तभी मिसेज परमार अपनी दोनों बेटियों के साथ मेरे पास खड़ी थी।
अरे मिसेज शर्मा कैसी हैं आप?
छुट्टियों का मजा उठा रही हैं।
अरे नहीं नहीं दीदी, किसी काम से से आई थी तो इधर की काफी पीने का मन हुआ, मैंने तुरंत झूठ बोला था।
ये रामजीलाल के बेटे की बहू को कैसे जानती हूं आप,एक ही टेबल पर। उन्होंने हंसते हुए कहा था।
अरे दीदी ये तो पार्क फ्रेंड हैं,ये यहां थी तो मैं भी इधर ही आ गई।
इतने बड़े घराने की बहू है पर पागल है आधी पागल। इनके ससुर जी के पी ए हमारे परमार साहब के दोस्त हैं,वहीं बता रहे थे कि बेटे और बेटी को दादी ने ही पाला संभाला है,ये तो हमेशा गोली खाकर सोई रहती हैं।
मैं तो इतना कुछ नहीं जानती दीदी और ना ही कोई इतना परिचय। अक्सर पार्क में मिल जाती हैं,आज यहांदिखी तो दस मिनिट बैठ गए। मैं सफेद झूठ बोल कर इजाजत लेकर निकल आई।
घर आते ही मैंने अपने लिए चाय बनाई थी । आज मुझे सन्नी की बहुत याद आ रही थी। कितना सुंदर और सजीला जवान था मेरा भाई। अपनी मेहनत से इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला, फिर सरकारी नौकरी,शादी की बात पर उसने कहा था,मैं तो अपनी पसंद की लड़की से शादी करूंगा। बहुत जोर देने पर उसने चाचा जी को लड़की का एड्रेस भी बता दिया था। चाचा जी रिश्ता लेकर गए तो उस परिवार ने बहुत बेइज्जत करके मना कर दिया था
बस तभी से सन्नी टूट सा गया था। सुनने में आया था कि सन्नी ने उस लड़की से मिलकर कोर्ट मेरिज की पेशकश की थी। लड़की तैयार हो गई थी,और घर छोड़ कर आ गई थी।पर उसके परिजन उसके बाप के आत्महत्या करने के झूठे ड्रामे से उसे वापस ले गए और लड़की की शादी आनन-फानन में कहीं और करदी।
सारी घटनाएं चलचित्र सी आंखों के सामने घूम गई थी। हर साल राखी पर जाती तो सन्नी को और बिखरा हुआ सा पाती। शादी के नाम पर बहुत सख्ती से मना कर देता।
परिवार के लोग मजाक में उसे देवदास कहने लगे थे। पर आज विनती से मिलकर उनके दर्द की हकीकत जान गई थी। क्या कर पाऊंगी मैं उनके लिए, शायद कुछ नहीं। कितना अच्छा हो दोनों कहीं फिर अपनी गृहस्थी बसा ले। पर ये कोई सीरियल या फिल्म थोड़ी ही थी।
पति से इजाजत लेकर मैं दो दिन के लिए मायके चली आई थी। माँ और भाभी से मिलकर चाचा के घर चली आई थी मेरे घर से आधे घंटे का रास्ता था।
चाचीजी का स्वास्थ्य भी ढीला लगा था। चाचाजी भी टूटे से लगे थे। सन्नी के जिक्र से ही दोनों फफ़क पड़े थे।
बेटी, शराब पीकर इसने सब तबाह कर लिया, नौकरी छूटने को ही थी कि इस के साहब ने कहा कि मैं कुछ ऐसा करता हूँ कि पूर्व रिटायरमेंट का सबब
बन जाये,ताकि पैंशन मिलती रहे। उनकी मदद से ये तो संभव हो गया पर लड़का नशे की गर्त में गिर गया है। अब भी नशा मुक्ति केंद्र में पड़ा है। किसी को पहचानता नहीं कोई बात नहीं करता।खाता पीता भी नहीं है।पता नहीं कितने दिन जियेगा
मेरी रूलाई फूट पड़ी थी।चलते वक्त चाची विदाई देने लगी तो, मैंने सिर्फ नशा मुक्ति केंद्र का पता मांगा। वहाँ उस भीड़ में मुझे कहीं सन्नी नजर नहीं आया। डाक्टर से पूछने पर उसने एक कोने में अधबिछे गंदे पंलग की तरफ इशारा किया
सन्नी सन्नी
वो आँखें फाड़ फाड़ कर मुझे देख रहा था,पर कोई जवाब नहीं दिया।
सन्नी मैं तुम्हारी रंजना दीदी
कोई भाव नहीं , कोई जवाब नहीं।
तभी मेरे फ़ोन पर घंटी बजी थी,
दीदी आपने सन्नी से बात नहीं करावाई, क्या आप उससे मिल नहीं पाई हैं।
मैंने फ़ोन सन्नी की तरफ कर दिया था,लो विनती से बात करो। फोन पकड़े पकड़े सन्नी वहीं लुढ़क गया था,दूसरी तरफ से सुरेन सुरेन की आवाजें आ रही थी।
मैंने फ़ोन स्विच ऑफ कर दिया था ।
एक दिन और रूक कर वापिस घर आ गई थी। तीसरे दिन ही सन्नी की मौत की खबर मिल गई थी।
मैंने विनती को कुछ नहीं बताया था। क्योंकि उस की मानसिक हालत भी ज्यादा सदृढ़ नहीं थी।
मैं बिल्कुल टूट गई थी पर ये बात किसी से बांट भी नहीं पा रही थी।
विनती के मैसेज से आया था दीदी मुझे सब भूलने सा लगा है,सुबह क्या खाया था,ये भी भूल जाती हूँ। मैं अपना मोबाइल भी बंद कर दूंगी , क्योंकि मुझे इस की घंटी से डर लगने लगता है,आप प्लीज़ सुरेन्द्र से एक बार मेरी बात करा दें।
कोशिश करूंगी विनती।
इस के बाद विनती का भी कोई मैसेज नहीं आया,मैं भी उसे ज्यादा नहीं टटोल पाई, क्योंकि उसने मेरा नंबर अपने मोबाइल में सेव नहीं किया था। मैसेज भी वो तुरंत साफ कर देती थी।
मैंने एक दो बार फोन करने की कोशिश की ,पर घंटी ही नहीं बजी। बहुत उदास था मन।
आज रविवार था, पार्क में घूमते हुए जाने क्यों विनती बहुत याद आ रही थी।
घर आकर अखबार देखनी लगी तो,
बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था " सड़क हादसे में सेठ रामजीलाल जी की पुत्रवधु की मौत"
मुझे जाने क्यों बहुत जोर से रोना आ गया,शायद सन्नी को याद करके शायद विनती या फिर दोनों के सांझें दर्द को याद करके।
समाप्त
लेखिका ललिताविम्मी
भिवानी हरियाणा
Seema Priyadarshini sahay
01-Jul-2022 10:05 AM
बहुत ही बेहतरीन रचना
Reply
Alfia alima
01-Jul-2022 06:52 AM
Nice
Reply
Gunjan Kamal
30-Jun-2022 08:28 PM
शानदार प्रस्तुति 👌
Reply